Zenab rehan

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अठारहवाँ अध्याय




आखिरी श्लोक में जो कुछ कहा गया है उसका आशय यही है कि जैसे दूसरे की चोरी का माल अपने घर में रखने वाला नाहक अपराधी बनता है और परेशानी में पड़ता है, ठीक वही हालत आत्मा की है। कर्मों के करने वाले तो ठहरे शरीर आदि। मगर उनकी क्रिया को धोखे में, भूल से अपने भीतर मानने के कारण ही इस निर्लेप और निर्विकार आत्मा को फँसना पड़ता है। पुत्र के साथ ज्यादा ममता होने से कभी-कभी ऐसा होता है कि पुत्र की मौत का निश्चय होते ही पिता उससे भी पहले एकाएक चल बसता है। शरीर दुबला और मोटा होने से आत्मा को खयाल होता है कि हमीं दुबले या मोटे हैं। यही है गैर के साथ एकता या तादात्म्य-तदात्मा का अभिमान। इसे तादात्म्याध्यास भी कहते हैं। आत्मा का शरीर, इंद्रियादि के साथ तादात्म्याध्यास हो गया है। फलत: उनके कामों एवं गुणों को अपना मानने का स्वभाव इसका हो गया है। इसे ही मिटाने का अर्थ है अहंकार का त्याग, 'हमीं करते हैं' इस भावना और खयाल का त्याग।

लेकिन इसके होने पर भी कर्म में आसक्ति होने पर, आग्रह हो जाने पर और फल की भावना होने पर भी फँस जाता है। यह है दूसरा खतरा और भारी खतरा। इस पर पूरा प्रकाश पहले डाला जा चुका है। आत्मा का साक्षात्कार होने के बाद अहंकार वाला भाव मिट जाने पर भी यह खतरा बना रहता है। इसीलिए बुद्धि के लिप्त न होने की बात कह के इसी खतरे से बचने की हिकमत सुझाई गई है। फिर तो पौ बरह समझिए। इस तरह एक प्रकार से आत्मा को कर्म से निर्लिप्त और अलग बता के काम निकाल लिया है।

अब आगे दूसरे ढंग से भी आत्मा का कर्मों से असंसर्ग सिद्ध करते हैं। ऐसा भी होता है कि स्वयं कर्म न भी करें तो भी दूसरों से करवा सकते हैं। इसे ही प्रेरणा कहते हैं। इसी को शास्‍त्रों में चोदना कहा है। ऐसों को करने वाले तो नहीं, लेकिन कराने वाले मान के ही अपराधी बताते हैं और दंड देते हैं। हिंसा, चोरी आदि में ऐसा होता है कि ललकारने या राय देने वाले भी फँसते हैं और दंड भोगते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमने न तो चोरी की, न उसमें राय-सलाह ही दी और न ललकारा ही। यह भी नहीं जानते कि कहीं चोरी हुई या नहीं। मगर यदि किसी से शत्रुता हुई तो चुपके से चोरी का माल हमारे यहाँ रख के फँसा देता है। अकसर गैरकानूनी रिवॉल्वर वगैरह चुपके से किसी के घर में रख के फँसा देते हैं। यदि कर्म का प्रेरक ही आत्मा हो जाए, या वस्तुत: कर्म उसी में रहते हों, हर हालत में उसे उनके फलों में खामख्वाह फँसना होगा। इसीलिए आगे के पूरे ग्यारह श्लोकों में यह बताया है कि कर्म के प्रेरक भी दूसरे ही हैं और कर्म रहता भी अन्य ही जगह है। यहाँ कर्मचोदना का अर्थ है कर्म के प्रेरक और कर्मसंग्रह का अर्थ है जिनमें कर्म देखा जा सके - जिनके देखने से ही कर्म का पता लग सके।

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।

करणं कर्म क र्त्ते ति त्रिविध: कर्मसंग्रह:॥ 18 ॥

ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता यही तीन कर्मों के प्रेरक हैं। (और) करण (इंद्रियादि साधन) कर्म, (जो बने, जहाँ कुछ हो), कर्त्ता इन्हीं तीन में कर्म का संग्रह होता है। 18।

इस श्लोक में ज्ञाता और कर्त्ता का एक ही अर्थ है। इन दोनों में केवल उपाधि या काम करने के तरीके का फर्क है। जब किसी बात की जानकारी होती है तब वह ज्ञाता या जानकार कहा जाता है। जब जानकारी के बाद काम करने लगता है तो वही कर्त्ता कहा जाता है। अकेली बुद्धि एक चीज है और उसे बुद्धि ही कहते हैं भी। उसका विवेचन आगे आएगा। मगर जब वही आत्मा के संसर्ग के फलस्वरूप उसके आभास, उसके प्रकाश से युक्त हो जाती है, जैसी कि आईने की चमक पड़ने पर दीवार उतनी दूर तक चमक उठती तथा ज्यादा प्रकाशवाली बन जाती है जितनी दूर तक आईने की रोशनी का असर उस पर होता है, तो वही बुद्धि ज्ञाता और कर्त्ता दोनों ही कही जाती है। इसीलिए ज्ञाता और कर्त्ता को एक ही कहा है। अतएव आगे सात्त्विक आदि रूपों का विचार करने के समय कर्त्ता का ही विचार करके संतोष करेंगे। क्योंकि कर्म की दृष्टि से ज्ञाता तथा कर्त्ता दोनों का एक ही असर कर्म पर माना जाता है। चाहे ज्ञाता सात्त्विक हो या कर्त्ता - और जब एक होगा तो दूसरा भी होईगा, क्योंकि हैं तो दोनों एक ही - कर्म सात्त्विक ही होगा और उसकी सात्त्विकता में कमी-बेशी न होगी, चाहे दोनों का नाम लें, या एक का। यहाँ कर्म का विचार और ही दृष्टि से हो रहा है। इसीलिए दोनों का कहना जरूरी हो गया। जो जानता है वही करता भी है। जब तक हम यह न जान लें कि हल कैसे चलाया जाता है तब तक उसे चलाएँगे कैसे? जब तक जान जाएँ नहीं कि कपड़ा कैसे बनता है, उसे बनाएँगे तब तक क्योंकर?

इसी तरह ज्ञेय और कर्म की भी बात है। पूर्वार्द्ध के तीन में जो ज्ञेय और उत्तरार्द्ध के तीन में जो कर्म आया है ये दोनों भी एक ही हैं। ज्ञेय का अर्थ ही है जिसका ज्ञान हो, जिसके बारे में ज्ञान हो। कर्म का अर्थ है जो किया या बनाया जाए, जिस पर या जहाँ हाथ-पाँव चलें। पूर्व के ही दृष्टांत में हल या कपड़े को लीजिए। पहले उनकी जानकारी होती है, ज्ञान होता है। पीछे उन्हीं पर हाथ-पाँव आदि चलते हैं। फर्क इतना ही है कि हल पहले से ही मौजूद है और उसी पर क्रिया होती है। मगर कपड़ा मौजूद नहीं है। किंतु सूत वगैरह पर ही क्रिया शुरू करके उसे तैयार करते हैं। वह क्रिया के ही सिलसिले में तैयार होता है। इसीलिए क्रिया का विषय, उसका आधार वह भी बन जाता है। मगर कपड़ा बुनना शुरू करने के पहले उसकी जानकारी जरूरी है। इसलिए इस श्लोक में जो दो त्रिपुटियाँ या त्रिक - तीन-तीन (trinity) हैं उन दोनों के ज्ञेय और कर्म एक ही हैं। यह कर्म वही है जिसे पाणिनीयसूत्र ने 'कर्त्तारीप्सिततमं कर्म' (पा. 1। 4। 49) के रूप में बताया है। इन दोनों के सात्त्विक या राजस, तामस होने, न होने पर कर्म या क्रिया में कोई अंतर नहीं पड़ता है। इसीलिए इन दोनों का आगे विचार नहीं किया गया है। हाँ, आगे जिस कर्म को तीन प्रकार का बताया है वह इस श्लोक के अंत के 'कर्म-संग्रह:' वाला कर्म ही है, जिसका विचार पहले से ही हो रहा है और जिसे काम, क्रिया (action) कहते हैं। वह जरूर सात्त्विक, राजस, तामस होता है। इन तीनों गुणों का उस पर असर जरूर होता है। इसीलिए उसका विचार आगे भी जरूरी हो गया है।

अब इन दोनों त्रिपुटियों में केवल ज्ञान और करण बच रहे। इनमें ज्ञान का आगे और भी विचार किया गया है। ज्ञान कहिए, जानकारी कहिए, इहसास (Knowledge) कहिए सब एक ही चीज है। इसके बिना कुछ होई नहीं सकता है। इस पर सत्त्वादि गुणों का असर भी होता है। साथ ही ज्ञान जैसा सात्त्विक, राजस या तामस होगा कर्म भी वैसा ही होगा। वह कर्म दरअसल किसमें है, किसमें नहीं इस निश्चय पर भी उसका असर खामख्वाह होगा। इसीलिए ज्ञान की तीन किस्मों का विवेचन इस कर्म-विवेचन के ही सिलसिले में आगे जरूरी हो गया है।

इस तरह करण कहते हैं कर्म या क्रिया के साधन को। जैसे कुल्हाड़ी से लकड़ी चीरते हैं और बसूले से भी। इसीलिए लकड़ी चीरने की क्रिया में, कर्म में कुल्हाड़ी और बसूला करण हो गए। इंद्रियों की ही मदद से हम कोई भी क्रिया कर सकते हैं। इसीलिए हाथ-पाँव आदि कर्म-इंद्रियाँ भी कर्म में करण बन गईं। मगर इस करण के सात्त्विक, राजस, तामस होने पर भी कर्म के बारे में, कि वह दरअसल किसमें है, किसमें नहीं, कोई असर नहीं होगा। इसलिए आगे इस करण का और भी विचार जरूरी नहीं माना गया है।


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